मेरी कलम से कुछ शब्द

प्रश्न हैं मेरे मन में,

अंत कभी होते नहीं ।

सोचते हैं जवाब में,

बंद कभी होते नहीं ॥

दिमाग की बत्ती जलते ही,

बुझने का कोई नाम नहीं ।

मानव के ही शब्दकोश में,

“असंभव” शब्द का स्थान नहीं ॥

जीवन-मरण के सत्य को,

मानना ही बुद्धिमत्ता है ।

जीवनरूपी युद्ध-क्षेत्र में,

प्रेम बिना, जो निहत्था है ॥

विज्ञान कितना ही विकास कर ले,

मरण को रोक सकते नहीं ।

होना है जो, वह होकर रहेगा,

कभी उसे बदल सकते नहीं ॥

द्वारा

आर.बाबूराज जैन   टी.जी.टी. (हिंदी) ज.न.वि.पुदुच्चेरी

This entry was posted on 29/08/2016. 1 Comment

आज़ाद हिन्द फौज और सुभाष चंद्र बोस

आज़ाद हिन्द फौज और सुभाष चंद्र बोस

    नमस्कार, इतिहास से अच्छा शिक्षक कोई दूसरा हो नहीं सकता. इतिहास सिर्फ अपने में घटनाओं को नहीं समेटे होता है बल्कि इन घटनाओं से भी आप बहुत कुछ सीख सकते हैं. इसी कड़ी में आज का दिन 21 अक्टूबर बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है, जो इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं | आज का दिन विशेष क्यों है ?

     21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई थी जिसे जापान ने 23 अक्टूबर 1943 को मान्यता दी थी I  आज आजाद हिंद सरकार के गठन की वर्षगांठ है I

    सुभाष चंद्र बोस देश के उन महानायकों में से एक हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया| सुभाष चंद्र बोस के संघर्षों और देश सेवा को देखते हुए महात्मा गांधी ने उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहा था | महानायक सुभाष चंद्र बोस को ‘आजादी का सिपाही’ के रूप में जाना जाता है भारत का सबसे श्रद्धेय स्वतंत्रता सेनानी माने जाने वाले सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के नाम से पहला भारतीय सशस्त्र सेना को सबल और सक्रिय बनाया था| उनके प्रसिद्ध नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तूम्हें  आजादी दूंगा’ ने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे उन तमाम भारतीयों के दिल में देशभक्ति पैदा कर दी थी| आज भी ये शब्द भारतीयों के दिल और दिमाग में जिंदा हैं | इस सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी ने द्वितीय विश्वयुद्ध के उत्तरार्द्ध के दौरान निर्वासन में अस्थायी सरकार के ध्वज के तहत ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्त करने के लिये संघर्ष शुरू किया था। उनकी अस्थायी सरकार के अंतर्गत विदेशों में रहने वाले भारतीय एकजुट हो गए थे। इंडियन नेशनल आर्मी ने मलेशिया  और म्याँमार में रहने वाले प्रवासी भारतीयों, पूर्व कैदियों और हज़ारों स्वयंसेवक नागरिकों को आकर्षित किया। नेताजी अस्थायी सरकार के प्रधानमंत्री और युद्ध तथा विदेश मामलों के मंत्री थे। कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने महिला संगठन की अध्यक्षता की, जबकि एस.ए. अय्यर ने प्रचार और प्रसार विभाग का नेतृत्व किया। क्रांतिकारी नेता रास बिहारी बोस को सर्वोच्च सलाहकार नियुक्त किया गया था। जापानी कब्ज़े वाले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में भी अस्थायी सरकार बनाई गई थी। सन 1945 में अंग्रेजों द्वारा इन द्वीपों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया गया था।

   सन 1942 में भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिंद फौज की स्थापना करने का सर्वप्रथम विचार मोहन सिंह जी के मन में था। जिसके फलस्वरूप जापान में निवास कर रहे भारतीयों ने एक सम्मेलन का आयोजन किया। आजाद हिन्द फौज या इन्डियन नेशनल आर्मी नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया गया I आजाद हिन्द फौज की स्थापना का मूल श्रेय रासबिहारी बोस को जाता है  जिसे बाद में सुभाष चंद्र बोस को सौंप दिया गया था. सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार के नाम से स्थापित किया I  आज उसकी वर्षगांठ हैI 

    नेताजी का एक ही उद्देश्य था, एक ही मिशन था, वह है भारत की आजादी। हिंदुस्तान को गुलामी की जंजीर से आजाद कराना, यही उनकी विचारधारा थी और यही उनका कर्मक्षेत्र था। उन्हीं के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज ने देश से बाहर अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

     बताया जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध की शुरूआत में सुभाष चंद्र बोस ने सोवियत संघ, नाजी, जर्मनी और इंपीरियल समेत कई देशों की यात्रा की. इन यात्राओं का मकसद था कि इन देशों के साथ आपसी गठबंधन को मजबूत किया जाए और भारत में ब्रिटिश सरकार के राज को हिलाया जाए। बताया जाता है कि 1921-1941 में अंग्रेजों से भारत को पूर्ण स्वतंत्र कराने के अपने रवैये को लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस को 11 बार विभिन्न जेलों की सजा हुई |

   19 मार्च 1944 के दिन पहली बार आजाद हिंद फौज के लोगों ने झंड़ा फहराया था | आजाद हिंद फौज ने बर्मा की सीमा पर अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी| इसको कई देशों का समर्थन मिला जिसके बाद भारत में अंग्रेजों की जड़ें हिलने लगी| ये सरकार 1940 के दशक में भारत के बाहर ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन था |

   आजाद हिंद सरकार का अपना बैंक भी था जिसे आजाद हिंद बैंक का नाम दिया गया था| इसकी स्थापना साल 1943 में हुई| इस बैंक ने दस रुपये के सिक्के से लेकर एक लाख रुपये तक का नोट जारी किया था| एक लाख रुपये के नोट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर छपी थी| इस सरकार का अपना डाक टिकट और झंडा तिरंगा था| एक दूसरे के अभिवादन के लिए जय हिंद के नारे का इस्तेमाल किया जाता था | 21 मार्च 1944 को चलो दिल्ली के नारे के साथ आजाद हिंद सरकार का हिंदुस्तान की धरती पर आगमन हुआ था |

    आजाद हिन्द फौज ने वर्ष 1944 में अंग्रेजों से भयंकर युद्ध किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया गया | 22 सितंबर, 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुये सुभाष बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा ‘हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में है. तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’.

   नेताजी की मौत के साथ ही आज़ाद हिंद आंदोलन के अंत के रूप में देखी गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध भी 1945 में ध्रुवीय शक्तियों की हार के साथ समाप्त हुआ।

   आज भी आज़ाद हिन्द फ़ौज लाखों भारतवासियों के दिलों में अपना स्थान बनाए हुए है | निश्चित रूप से आज़ाद हिंद फौज या इंडियन नेशनल आर्मी (INA) की भूमिका स्वतंत्रता के लिये भारत के संघर्ष को प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण रही थी। इसमें कोई दो राय नहीं है |

परमवीर निर्भीक निडर,

पूजा होती जिनकी घर घर,

भारत माँ के सच्चे महावीर, 

हैं सुभाष चंद्र बोस अमर

जय हिन्द जय हिंदुस्तान |

शिक्षक दिवस के संदर्भ में ; डॉ. राधाकृष्णन

        गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

    गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है, उन सद्गुरुओं  को प्रणाम करता हूँ।

     भारतीय संस्कृति में माता-पिता से भी ऊंचा दर्जा गुरु को दिया जाता है। एक तरफ जहां माता-पिता बच्चे को जन्म देते हैं तो शिक्षक उनके जीवन को आकार देते हैं। शिक्षक हमें बिना किसी भेदभाव और निस्वार्थ भाव से हमारे जीवन को सकारात्मकता की ओर ले जाने में मदद करते हैं और हमें नकारात्मकता से दूर रखते हैं और समाज में हमें एक अच्छा नागरिक बनाते हैं।

      गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।

      बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥

   इस प्रचलित दोहे में महाकवि कबीरदास जी कहते है कि जब आपके सामने गुरु और भगवान दोनों ही खड़े हो तो आप सर्वप्रथम किसे प्रणाम करेंगे? गुरु ही आपको गोविंद अर्थात भगवान तक पंहुचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं अर्थात गुरु महान है और आपको अपने गुरु का ही वंदन सर्वप्रथम करना चाहिए. ऐसे गुरुओं के सम्मान में आज आप और हम सब शिक्षक दिवस मनाने के लिए उपस्थित हुए हैं ।

   सन्‌ 1962 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने थे। इस वर्ष उनके कुछ शिष्य और प्रशंसक मिलकर उनका जन्मदिन मनाने का सोचा। इसे लेकर जब वे उनसे अनुमति लेने पहुंचे तो राधाकृष्णन जी  ने कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से मनाने की बजाय अगर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाएगा तो मुझे गर्व होगा। तब से प्रतिवर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवसके रूप में मनाया जाने लगा है।  

    डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888 से 1975) का जन्म तमिलनाडु में स्थित तिरुतनी में एक मध्यवर्गीय तेलुगु परिवार में हुआ था। उनका प्रारंभिक समय तिरूतनी और तिरुपति में बीता।

    डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हंसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।

    शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।

  डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है।

  शिक्षा का लक्ष्य ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति है । वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती।

   वे कहते थे कि विद्यालय जानकारी बेचने की दुकान नहीं हैं, वे ऐसे तीर्थस्थल हैं, जिनमें स्नान करने से व्यक्ति को बुद्धि, इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है।

   अमेरिका में भारतीय दर्शन पर उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान को सभी लोगों ने बहुत सराहा । उन्हीं से प्रभावित होकर सन् 1929-30 में उन्हें मेनचेस्टर कॉलेज में प्राचार्य का पद ग्रहण करने को बुलाया गया। मेनचेस्टर और विश्वविद्यालय में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर दिए गए उनके भाषणों को सुनकर प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टेंड रसेल ने कहा था, ‘मैंने अपने जीवन में पहले कभी इतने अच्छे भाषण नहीं सुने।

    आधुनिक भारत के महान दार्शनिक राधाकृष्णन जी के अनुसार दर्शनशास्त्र जीवन को समझने का एक नजरिया है। उन्होंने भारत की प्राचीन गौरवशाली दार्शनिक परंपराओं को पश्चिमी शैली में परिभाषित कर भारतीयों का आत्मसम्मान बढ़ाया। राधाकृष्णन जी ने वेदांत दर्शन और प्रस्थान त्रयी (उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता) को पश्चिम की शब्दावली में समझाया। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि भारत की आत्मा सदैव सनातन रही है और यह हर तरीके से रूढि़वाद और संकीर्णता का विरोध करती है।

    इस महान दार्शनिक शिक्षाविद का निधन 17 अप्रैल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया। यद्यपि उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तथापि उनके विचार वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

अंत में पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की इन पंक्तियों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ –

छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता

टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता

मन हारकर मैदान नहीं जीते जाते

न ही मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।

आप और हम सब मन भी जीतें और मैदान भी…।

शुभकामनाओं सहित

अपने विचारों को यहीं पर विराम देता हूँ | जय हिन्द |

भारतीय संस्कृति महान है |- आकाशवाणी, पुदुच्चेरी द्वारा प्रसारित मेरा भाषण

हम सब जानते है कि भारत देश बहुत बड़ा और बहुत सुंदर देश है , विश्व में हर देश की अपनी – अपनी एक संस्कृति होती है इसी क्रम में हमारे देश की भी अपनी एक संस्कृति है । अगर देखा जाए  तो संस्कृति का सीधा संबंध हमारे पूर्वजों से है समझने की दृष्टि से यह कह सकते हैं कि हमारा रहन – सहन , बोल – चाल ,बड़ों का आदर करना , साहित्य का ज्ञान , कला , नृत्य,  त्यौहार मनाने का ढंग , अतिथियों का सत्कार इत्यादि ये वो गुण हैं जो हमारे पूर्वजों से आये  हैं और  यही तो है हमारी संस्कृति ।  जी हाँ, भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन, सर्वाधिक समृद्ध एवं  महान संस्कृति है। इसे विश्व की सभी संस्कृतियों की जननी माना जाता है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती गई हैं किन्तु भारत की संस्कृति अनादिकाल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। भारतीय संस्कृति में महान समायोजन की क्षमता होती है। यहाँ पर विभिन्न संस्कृतियों के लोग आए और यहीं पर बस गए। उनकी संस्कृतियाँ भारतीय संस्कृति का अंग बन गईं हैं। इसी वजह से भारतीय संस्कृति लगातार आगे बढती जा रही है।

आज के समय में सभ्यता और संस्कृति को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाने लगा है जिसके फलस्वरूप संस्कृति के संदर्भ में अनेक भ्रांतियाँ पैदा हो गई हैं। वास्तव में संस्कृति और सभ्यता अलग-अलग होती हैं। “संस्कृति क्या है?” निबंध रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध निबंध है।  प्रस्तुत निबंध में आपने संस्कृति की विशेषता ,सभ्यता और संस्कृति में अन्तर स्पष्ट करते हुए बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है।  लेखक के अनुसार संस्कृति के निर्माण में कलात्मक अभिरुचि का महान योगदान होता है। लेखक का मानना है कि संस्कृति को किसी परिभाषा में बाँधा नहीं जा सकता है क्योंकि यह जन्म जात होने के कारण सबमें व्याप्त होती है।  संस्कृति और सभ्यता में अन्तर है।  सभ्यता स्थूल होती है और समय समय पर व्यक्ति द्वारा अर्जित की जाती है। प्रायः जितने भौतिक साधन है, उनका संबंध सभ्यता से है जबकि हमारी रूचि ,जीवन यापन का ढंग,व्यवहार ,पहनावा आदि का संबंध संस्कृति से ही होता है,ऐसा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला साफ़ सुथरा दिखने वाला व्यक्ति स्वभाव से पशुवत हो सकता है और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य हो। मगर समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी पोशाक बेढंगी होती है ,जिनका रहन -सहन बड़ा ही सरल होता है परन्तु वे स्वभाव से सदाचारी एवं विनयी होते हैं। वे दूसरों के दुःख से दुखी हैं तथा दूसरों के कष्ट निवारण हेतु स्वयं कष्ट उठाने को भी तैयार रहते हैं।  सभ्यता एवं संस्कृति एक दूसरे के पूरक  हैं।  जिस प्रकार मानव शरीर में ,आत्मा से शरीर का संबंध है वैसे ही ये दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं।  जैसे घर बनाना सभ्यता है परन्तु घर बनाने की अभिरुचि ,उसका नक्शा ,उसका खाका तैयार करना संस्कृति है। इस प्रकार दोनों परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हुए निरंतर गतिशील रहते हैं।

संस्कृति किसी भी देश, जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही किसी भी देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है। संस्कृति का सरल अर्थ होता है – संस्कार, सुधार, परिष्कार, शुद्धि, सजावट आदि। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में संस्कृति का अर्थ “संस्कार” के रूप में माना गया है। कौटिल्य जी ने “विनय” के अर्थ में संस्कृति शब्द का प्रयोग किया है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये ‘कल्चर’ शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संस्कृति का अर्थ हम भले ही कुछ निकाल लें किन्तु संस्कृति का संबंध मानव जीवन मूल्यों से है।

मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता  से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति  से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं।

भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में मानव कल्याण की भावना निहित है। यहाँ पर जो भी काम होते हैं वे सभी बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की दृष्टि से ही होते हैं। यही संस्कृति भारतवर्ष की आदर्श संस्कृति होती है। भारत की संस्कृति की मूल भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के पवित्र उद्देश्य पर आधारित है अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोगी हो, सबका कल्याण हो, किसी को भी दुःख प्राप्त न हो ऐसी पवित्र भावनाएं भारतवर्ष में सदैव प्राप्त होती रहीं।

भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि हजारों सालों के बाद भी यह अपने मूल स्वरूप में जीवित है जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियाँ अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में गंगा, यमुना जैसी नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा करने का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। वेदों में और वैदिक धर्मों में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है जितना हजारों साल पहले था। भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरंतरता रही है कि आज भी करोड़ों भारतीय खुद को उन मूल्यों एवं चिंतन प्रणालियों से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र आध्यात्मिकता है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता का आधार ईश्वरीय विश्वास होता है। यहाँ पर विभिन्न धर्मों और मतों में विश्वास रखने वाले लोग आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं। उनकी दृष्टि में भगवान ही इस संसार का निर्माता है। वही संसार का कारण, पालक और संहारकर्ता है।

त्याग और तपस्या भारतीय संस्कृति के प्राण होते हैं। त्याग की भावना की वजह से मनुष्य के मन में दूसरों की सहायता सहानुभूति जैसे गुणों का विकास होता है और स्वार्थ व लालच जैसी बुरी भावनाओं का नाश होता है।

काम में संयम भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता होती है। इसी वजह से भारतीय संस्कृति काम में संयम का आदेश देती है। भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। वे सभी अपने-अपने धर्मों में विश्वास और निष्ठा रखते हैं और दूसरों के धर्म के प्रति सम्मान भी करते हैं।

भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीन समय से ही बना हुआ है। हमारा भारत देश एक बहुत ही विशाल देश है यहाँ पर भाषाओं की विविधता जरूर है लेकिन संगीत, नृत्य और नाटी के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। यहाँ की संस्कृति में अनेकता में एकता स्पष्ट रूप से झलकती है। भारतीय संस्कृति स्वाभाविक रूप से शुद्ध है जिसमें प्यार, सम्मान, दूसरों की भावनाओं का मान-सम्मान और अहंकाररहित व्यक्तित्व अंतर्निहित है।

गुरु का सम्मान भी हमारी संस्कृति का ही एक रूप कहा जा सकता है। भारतवर्ष में शुरू से ही गुरु का सम्मान किया जाता है। गुरु द्रोणाचार्य के मांगने पर एकलव्य ने अपने हाथ का अंगूठा दान में दे दिया था। बड़ों के लिए आदर और श्रद्धा भारतीय संस्कृति का एक बहुत ही बड़ा सिद्धांत है। बड़े खड़े हों तो उनके सामने न बैठना, बड़ों के आने पर स्थान को छोड़ देना, उनको सबसे पहले खाना परोसना जैसी क्रियाओं को अपनी दिनचर्या में देखा जा सकता है जो हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं।

हम लोग देखते हैं कि युवा वर्ग के लोग सभी बड़ों, पवित्र पुरुषों और महिलाओं का आशीर्वाद प्राप्त करने और उन्हें मान-सम्मान देने के लिए उनके चरणों को स्पर्श करते हैं। छात्र अपने शिक्षक के पैर छूते हैं। मन, शरीर, वाणी, विचार, शब्द और कर्म में शुद्धता हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

भारतीय संस्कृति एक सुदृढ़ विचार है,  एक महान जीवन मूल्य है जिनको अपनाकर जीवन में विकास प्राप्त किया जा सकता है। बहुत ही मह्त्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संस्कृति का उद्देश्य मनुष्य का सामूहिक विकास है ।

ध्यान देने वाली बात यह है कि एक राष्ट्र की संस्कृति उसके लोगों के दिल और आत्मा में बस्ती है। सर्वांगीनता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा भारतीय संस्कृति अग्रणी स्थान रखती है। भारतीय संस्कृति एक महान जीवनधारा है जो प्राचीनकाल से सतत प्रवाहित है। इस तरह से भारतीय संस्कृति स्थिर एवं अद्वितीय है जिसके संरक्षण की जिम्मेदारी वर्तमान पीढ़ी पर हैं।

अंत में इतना ही कहना चाहता हूँ :-

विश्व में भारत सबसे प्यारा और न्यारा है, सत्य-अहिंसा इसकी विचारधारा है।

निरंतरता,उदारता इसकी पहचान है, भारत की संस्कृति सबसे महान है ।

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कारगिल विजय दिवस पर मेरा भाषण

कारगिल विजय दिवस पर मेरा भाषण

सभी देशवासियों को “कारगिल विजय दिवस” की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ अमर शहीदों के चरणों में कोटि कोटि प्रणाम !!

जरा याद उन्हें भी कर लो,

जो लौट के घर न आये…..!!!!

  • 26 जुलाई 1999 का दिन भारतवर्ष के लिए एक ऐसा गौरव लेकर आया, जब हमने सम्पूर्ण विश्व के सामने अपनी विजय का बिगुल बजाया था, इस वजह से हर साल 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) मनाया जाता है.
  • इस दिन भारतीय सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान चलाए गए ‘ऑपरेशन विजय’ को सफलतापूर्वक अंजाम देकर भारत भूमि को घुसपैठियों के चंगुल से मुक्त कराया था
  • ऑपरेशन विजय 8 मई से शुरू होकर 26 जुलाई तक चला था.
  • इस कार्रवाई में भारतीय सेना के 527 जवान शहीद हुए तो करीब 1363 घायल हुए थे.
  • इस लड़ाई में पाकिस्तान के करीब तीन हजार जवान मारे गए थे,
  • आज उन्हीं वीर जवानों के नाम एक बार फिर याद करें और इन मैसेजेस से कारगिल विजय दिवस की शुभकामनाएं दें.
  • कारगिल विजय दिवस स्वतंत्र भारत के लिये एक महत्वपूर्ण दिवस है। इसे हर साल 26 जुलाई को मनाया जाता है। कारगिल युद्ध लगभग 60 दिनों तक चला और 26 जुलाई को उसका अंत हुआ। इसमें भारत की विजय हुई। इस दिन कारगिल युद्ध में शहीद हुए जवानों के सम्मान हेतु मनाया जाता है
  • कारगिल विजय दिवस पर कविता

कभी दिल मांग लेना,

कभी जान माँग लेना,

अगर मौत अपनी चाहिए,

तो कभी हमसे हिन्दुस्तान माँग लेना।

  • कारगिल युद्ध में शहीद जवानों के सम्मान में शायरी:

आज फिर एक सिपाही जंग में शहीद हो गया,

जीते जीते अपनी साँसे हमारे नाम कर गया।

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मौलाना अबुल कलाम आज़ाद : एक परिचय

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन (11 नवंबर, 1888 – 22 फरवरी, 1958) एक प्रसिद्ध भारतीय मुस्लिम विद्वान थे। वे कवि, लेखक, दार्शनिक, पत्रकार और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। इन सबसे बढ़कर अपने समय के धर्म के एक महान् विद्वान् थे। महात्मा गांधी की तरह भारत की भिन्न-भिन्न जातियों के बीच, विशेष तौर पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता के लिए कार्य करने वाले कुछ महान् लोगों में से वे भी एक थे। अपने गुरु की तरह उन्होंने भी जीवन भर दो दुश्मनों ब्रिटिश सरकार और हमारे राष्ट्र की एकता के विरोधियों का सामना किया। खिलाफत आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1923 में वे भारतीय नेशनल काग्रेंस के सबसे कम उम्र के प्रेसीडेंट बने। स्वतंत्रता के बाद वे भारत सरकार के पहले शिक्षा मंत्री बने और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना में उनके सबसे अविस्मरणीय कार्यों में से एक था। उन्हें ‘मौलाना आज़ाद’ के नाम से जाना जाता है। ‘आज़ाद’ उनका उपनाम है।

जन्म

अबुल के पिता ‘मौलाना खैरूद्दीन’ एक विख्यात विद्वान् थे, जो बंगाल में रहते थे। उनकी माँ ‘आलिया’ एक अरब थी और मदीन के शेख़ मोहम्मद ज़ाहिर वत्री की भतीजी थी। अरब देश के पवित्र मक्का में रहने वाले एक भारतीय पिता और अरबी माता के घर में उनका जन्म हुआ। पिता मौलाना खैरूद्दीन ने उनका नाम मोहिउद्दीन अहमद रखा। आगे चलकर वे ‘मौलाना अबुल कलाम आज़ाद’ या ‘मौलाना साहब’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। बचपन से ही उनमें कुछ ख़ास बातें नज़र आने लगी थीं, जो जीवन भर उनके साथ रहीं। मौलाना आज़ाद को एक ‘राष्ट्रीय नेता’ के रूप में जाना जाता हैं।

एक मित्र को उन्होंने पत्र में लिखा था, “…..मैं राजनीति के पीछे कभी नहीं दौड़ा था। वस्तुतः राजनीति ने ही मुझे पकड़ लिया…..”।

स्वतंत्र भारत के शिक्षा मंत्री

आज़ाद स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे और उन्होंने ग्यारह वर्षो तक राष्ट्र की नीति का मार्गदर्शन किया। भारत के पहले शिक्षा मंत्री बनने पर उन्होंने नि:शुल्क शिक्षा, भारतीय शिक्षा पद्धति, उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना की । मौलाना आज़ाद को ही ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’ अर्थात् ‘आई.आई.टी. और ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ की स्थापना का श्रेय है।वे संपूर्ण भारत में 10+2+3 की समान शिक्षा संरचना के पक्षधर रहे।

भारत रत्न

वर्ष 1992 में मरणोपरान्त मौलाना को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। एक इंसान के रूप में मौलाना महान् थे, उन्होंने हमेशा सादगी का जीवन पसंद किया। उनमें कठिनाइयों से जूझने के लिए अपार साहस और एक संत जैसी मानवता थी। उनकी मृत्यु के समय उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी और न ही कोई बैंक खाता था। उनकी निजी अलमारी में कुछ सूती अचकन, एक दर्जन खादी के कुर्ते पायजामें, दो जोड़ी सैडल, एक पुराना ड्रैसिंग गाऊन और एक उपयोग किया हुआ ब्रुश मिला किंतु वहाँ अनेक दुर्लभ पुस्तकें थी जो अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं।

मौलाना आज़ाद जैसे व्यक्तित्व कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। अपने संपूर्ण जीवन में वे भारत और इसकी सम्मिलित सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयासरत रहे।

राष्ट्रीय शिक्षा दिवस

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के जन्म दिवस 11 नवम्बर को ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ घोषित किया गया है। उनकी अगुवाई में ही 1950 के शुरुआती दशक में ‘संगीत नाटक अकादमी’, ‘साहित्य अकादमी’ और ‘ललित कला अकादमी’ का गठन हुआ था। इससे पहले वह 1950 में ही ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ बना चुके थे। हैदराबाद में उन्हीं के नाम पर ‘मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू युनिवर्सिटी’ स्थापित कर राष्ट्र की ओर से एक स्वतन्त्रता सेनानी, क्रान्तिकारी, पत्रकार, समाज सुधारक, शिक्षा विशेषज्ञ और अभूतपूर्व शिक्षा मंत्री को श्रृद्धांजली दी गयी है। हम भी अपने विद्यालय में ऐसे महान पुरुष याद करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं | जय हिन्द | जय मौलाना आज़ाद |

नम्रता और अभिमान

*पहाड़ चढ़ने वाला व्यक्ति झुककर चलता है और उतरने वाला अकड़ कर चलता है |*

*कोई अगर झुककर चल रहा है मतलब ऊँचाई पर जा रहा है और कोई अकड़ कर चल रहा है, मतलब नीचे जा रहा है |*

*”अभिमान”की ताकत फरिश्तो को भी”शैतान”बना देती है,और*
*”नम्रता”साधारण व्यक्ति को भी “फ़रिश्ता”बना देतीहै।*

नवोदय : एक परिचय

नवोदय : एक परिचय

नवोदय नवोदय नवोदय,

विद्यालय का नाम है नवोदय ।

पूरे भारत में है नवोदय,

हरेक जिला में है नवोदय ॥

 

विद्यालयों का आदर्श है नवोदय,

संपूर्ण विकास का नाम है नवोदय ।

राष्ट्रीय एकता का सूत्रधार है नवोदय,

विद्या का स्रष्टा है नवोदय ।।

 

सहशिक्षा का साम्राज्य है नवोदय,

आवासीय विद्यालय है नवोदय ।

पर्यावरण के गोद में है नवोदय,

गरीबों का वर-प्रसाद है नवोदय ॥

 

नवाचार का प्रतिनाम है नवोदय,

ज्ञान का विस्तारक है नवोदय।

जाति-धर्म से परे है नवोदय,

गुरुकुल परंपरा का उदाहरण है नवोदय॥

 

 

राजीव गांधी के दिमाग की उपज है नवोदय,

गाँवों के प्रतिभाशालियों का उद्धारक है नवोदय ।

खेद-कूद, गीत-संगीत का भर-मार है नवोदय,

अत्याधुनिक साधनों का भंडार है नवोदय ॥

 

त्रिभाषा सूत्र का परिचायक है नवोदय,

भारतीय संस्कृति का संरक्षक है नवोदय ।

विद्यालयों में अग्रगण्य है नवोदय,

एक छोटा हिंदुस्तान है नवोदय ॥

आर.बाबूराज जैन

टी.जी.टी.(हिंदी)

जवाहर नवोदय विद्यालय, पुदुच्चेरी