हम सब जानते है कि भारत देश बहुत बड़ा और बहुत सुंदर देश है , विश्व में हर देश की अपनी – अपनी एक संस्कृति होती है इसी क्रम में हमारे देश की भी अपनी एक संस्कृति है । अगर देखा जाए तो संस्कृति का सीधा संबंध हमारे पूर्वजों से है समझने की दृष्टि से यह कह सकते हैं कि हमारा रहन – सहन , बोल – चाल ,बड़ों का आदर करना , साहित्य का ज्ञान , कला , नृत्य, त्यौहार मनाने का ढंग , अतिथियों का सत्कार इत्यादि ये वो गुण हैं जो हमारे पूर्वजों से आये हैं और यही तो है हमारी संस्कृति । जी हाँ, भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन, सर्वाधिक समृद्ध एवं महान संस्कृति है। इसे विश्व की सभी संस्कृतियों की जननी माना जाता है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती गई हैं किन्तु भारत की संस्कृति अनादिकाल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। भारतीय संस्कृति में महान समायोजन की क्षमता होती है। यहाँ पर विभिन्न संस्कृतियों के लोग आए और यहीं पर बस गए। उनकी संस्कृतियाँ भारतीय संस्कृति का अंग बन गईं हैं। इसी वजह से भारतीय संस्कृति लगातार आगे बढती जा रही है।
आज के समय में सभ्यता और संस्कृति को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाने लगा है जिसके फलस्वरूप संस्कृति के संदर्भ में अनेक भ्रांतियाँ पैदा हो गई हैं। वास्तव में संस्कृति और सभ्यता अलग-अलग होती हैं। “संस्कृति क्या है?” निबंध रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध निबंध है। प्रस्तुत निबंध में आपने संस्कृति की विशेषता ,सभ्यता और संस्कृति में अन्तर स्पष्ट करते हुए बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। लेखक के अनुसार संस्कृति के निर्माण में कलात्मक अभिरुचि का महान योगदान होता है। लेखक का मानना है कि संस्कृति को किसी परिभाषा में बाँधा नहीं जा सकता है क्योंकि यह जन्म जात होने के कारण सबमें व्याप्त होती है। संस्कृति और सभ्यता में अन्तर है। सभ्यता स्थूल होती है और समय समय पर व्यक्ति द्वारा अर्जित की जाती है। प्रायः जितने भौतिक साधन है, उनका संबंध सभ्यता से है जबकि हमारी रूचि ,जीवन यापन का ढंग,व्यवहार ,पहनावा आदि का संबंध संस्कृति से ही होता है,ऐसा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला साफ़ सुथरा दिखने वाला व्यक्ति स्वभाव से पशुवत हो सकता है और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य हो। मगर समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी पोशाक बेढंगी होती है ,जिनका रहन -सहन बड़ा ही सरल होता है परन्तु वे स्वभाव से सदाचारी एवं विनयी होते हैं। वे दूसरों के दुःख से दुखी हैं तथा दूसरों के कष्ट निवारण हेतु स्वयं कष्ट उठाने को भी तैयार रहते हैं। सभ्यता एवं संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं। जिस प्रकार मानव शरीर में ,आत्मा से शरीर का संबंध है वैसे ही ये दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। जैसे घर बनाना सभ्यता है परन्तु घर बनाने की अभिरुचि ,उसका नक्शा ,उसका खाका तैयार करना संस्कृति है। इस प्रकार दोनों परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हुए निरंतर गतिशील रहते हैं।
संस्कृति किसी भी देश, जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही किसी भी देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है। संस्कृति का सरल अर्थ होता है – संस्कार, सुधार, परिष्कार, शुद्धि, सजावट आदि। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में संस्कृति का अर्थ “संस्कार” के रूप में माना गया है। कौटिल्य जी ने “विनय” के अर्थ में संस्कृति शब्द का प्रयोग किया है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये ‘कल्चर’ शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संस्कृति का अर्थ हम भले ही कुछ निकाल लें किन्तु संस्कृति का संबंध मानव जीवन मूल्यों से है।
मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं।
भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में मानव कल्याण की भावना निहित है। यहाँ पर जो भी काम होते हैं वे सभी बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की दृष्टि से ही होते हैं। यही संस्कृति भारतवर्ष की आदर्श संस्कृति होती है। भारत की संस्कृति की मूल भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के पवित्र उद्देश्य पर आधारित है अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोगी हो, सबका कल्याण हो, किसी को भी दुःख प्राप्त न हो ऐसी पवित्र भावनाएं भारतवर्ष में सदैव प्राप्त होती रहीं।
भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि हजारों सालों के बाद भी यह अपने मूल स्वरूप में जीवित है जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियाँ अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में गंगा, यमुना जैसी नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी-देवताओं की पूजा करने का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। वेदों में और वैदिक धर्मों में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है जितना हजारों साल पहले था। भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरंतरता रही है कि आज भी करोड़ों भारतीय खुद को उन मूल्यों एवं चिंतन प्रणालियों से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र आध्यात्मिकता है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता का आधार ईश्वरीय विश्वास होता है। यहाँ पर विभिन्न धर्मों और मतों में विश्वास रखने वाले लोग आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं। उनकी दृष्टि में भगवान ही इस संसार का निर्माता है। वही संसार का कारण, पालक और संहारकर्ता है।
त्याग और तपस्या भारतीय संस्कृति के प्राण होते हैं। त्याग की भावना की वजह से मनुष्य के मन में दूसरों की सहायता सहानुभूति जैसे गुणों का विकास होता है और स्वार्थ व लालच जैसी बुरी भावनाओं का नाश होता है।
काम में संयम भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता होती है। इसी वजह से भारतीय संस्कृति काम में संयम का आदेश देती है। भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। वे सभी अपने-अपने धर्मों में विश्वास और निष्ठा रखते हैं और दूसरों के धर्म के प्रति सम्मान भी करते हैं।
भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीन समय से ही बना हुआ है। हमारा भारत देश एक बहुत ही विशाल देश है यहाँ पर भाषाओं की विविधता जरूर है लेकिन संगीत, नृत्य और नाटी के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। यहाँ की संस्कृति में अनेकता में एकता स्पष्ट रूप से झलकती है। भारतीय संस्कृति स्वाभाविक रूप से शुद्ध है जिसमें प्यार, सम्मान, दूसरों की भावनाओं का मान-सम्मान और अहंकाररहित व्यक्तित्व अंतर्निहित है।
गुरु का सम्मान भी हमारी संस्कृति का ही एक रूप कहा जा सकता है। भारतवर्ष में शुरू से ही गुरु का सम्मान किया जाता है। गुरु द्रोणाचार्य के मांगने पर एकलव्य ने अपने हाथ का अंगूठा दान में दे दिया था। बड़ों के लिए आदर और श्रद्धा भारतीय संस्कृति का एक बहुत ही बड़ा सिद्धांत है। बड़े खड़े हों तो उनके सामने न बैठना, बड़ों के आने पर स्थान को छोड़ देना, उनको सबसे पहले खाना परोसना जैसी क्रियाओं को अपनी दिनचर्या में देखा जा सकता है जो हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं।
हम लोग देखते हैं कि युवा वर्ग के लोग सभी बड़ों, पवित्र पुरुषों और महिलाओं का आशीर्वाद प्राप्त करने और उन्हें मान-सम्मान देने के लिए उनके चरणों को स्पर्श करते हैं। छात्र अपने शिक्षक के पैर छूते हैं। मन, शरीर, वाणी, विचार, शब्द और कर्म में शुद्धता हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
भारतीय संस्कृति एक सुदृढ़ विचार है, एक महान जीवन मूल्य है जिनको अपनाकर जीवन में विकास प्राप्त किया जा सकता है। बहुत ही मह्त्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संस्कृति का उद्देश्य मनुष्य का सामूहिक विकास है ।
ध्यान देने वाली बात यह है कि एक राष्ट्र की संस्कृति उसके लोगों के दिल और आत्मा में बस्ती है। सर्वांगीनता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा भारतीय संस्कृति अग्रणी स्थान रखती है। भारतीय संस्कृति एक महान जीवनधारा है जो प्राचीनकाल से सतत प्रवाहित है। इस तरह से भारतीय संस्कृति स्थिर एवं अद्वितीय है जिसके संरक्षण की जिम्मेदारी वर्तमान पीढ़ी पर हैं।
अंत में इतना ही कहना चाहता हूँ :-
विश्व में भारत सबसे प्यारा और न्यारा है, सत्य-अहिंसा इसकी विचारधारा है।
निरंतरता,उदारता इसकी पहचान है, भारत की संस्कृति सबसे महान है ।
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